सुनें कि नई हवाओं की सौहवत विगाड़ देती है
कबूतरों को खुली छत बिगाड़ देती है
जो जुर्म करते हैं इतने बुरे नहीं होते
सजा न देके अदालत बिगाड़ देती है
मिलाना चाहा है इंसा को जो भी इंसा से
तो सारे काम सियासत विगाड़ देती है
हमारे पीर तकीमीर ने कहा था कभी
मियां ये आशिकी इज्जत विगाड़ देती है
सियासत में जरूरी है रवादारी समझता है
वो रोजा तो नहीं रखता पर इफतारी समझता है।
— साभार राहत इन्दौरी साहब
बहुत खूब
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteशानदार अतुलनीय लाइन