सच का सफर अधरों पे दम तोड़ता है झूठ की नजर डोलती है आसमान
में
यार इस सीजन में कितना उड़ाया माल एक नेता पूछता है दूसरे
से कान में
कुछ ने किया है खेल, खेल में ही रेल पेल सैटिंग बिठाई कईयों ने फोनफान में
कुछ थो आदर्श हुये सागर किनारे जाके और बाकी कूद गये कोयला
खदान में
कुछ अधरों की प्यास इतनी वढी कि वस सारी मधुशाला को प्याला
कर लिया है
और कुछ भूख इतनी हुयी है विकराल पूरे संविधान को निवाला कर
लिया है
माल देश का उड़ा के खुश है दलाल और अपनी ही खाल को दुशाला
कर लिया है
मुंह चूंकि देश को दिखाने लायक नहीं था इसलिये कोयले से
काला कर लिया है।
भोर की सुनहरी डालियों पे बैठे पंक्षियों को भूख के डरावने
ख्यालों से बचाईये
खुद को तलाश करते जवान लम्हों की शाम को लरजते प्यालों से
बचाईये
कि कैसे कहॉ कौनसी मुसीबत उठाये सर आम आदमी को इन ख्यालों
से बचाईये
और सारी मुश्किलों के निकलने लगेंगे हल पहले इस देश को
दलालों से बचाईये
लोकतन्त्र की विडम्बना है और कुछ नहीं जाने किस किस को सलाम
सोंप दिया है
आज तक ठीक से समझ में यह आया नहीं जाने किस बात का इनाम
सोंप दिया है
जो हैं तानाशाही वाली सोच के गुलाम उन्हें आज सारे हिन्द का
निजाम सोंप दिया है
जिन्हें बैठना था पान की दुकान पर उन्हें देश का चलाने वाले
काम सोंप दिया है
नित नये बादे नये दाबे में इरादे नये पल में बदलते वयान छोड
दीजिये
वस में नहीं जो काम उसका वखान फिर उस पे लड़ानी ये जुबान
छोड दीजिये
कि आपने परिस्थितियॉ जो पैदा कर दी हैं मॉग करता है संविधान
छोड दीजिये
तुमसे न होगा कुछ मानो मनमौन जी हो सके तो देश की कमान छोड
दीजिये
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