Saturday 30 March 2013

ओ कल्पवृक्ष की सोनजुही (O Kalpbrikh Ki Sonjuhi)


ओ कल्पवृक्ष की सोनजुही 

ओ कल्पवृक्ष की सोनजुही
ओ अमलताश की अमरकली
धरती के आतप से जलते
मन पर छाई निर्मल बदली
में तुमको मधुसदगन्ध युक्त संसार नहीं दे पाउॅंगा
तुम मुझको माफ करना तुम्हें मैं प्यार नहीं दे पाउॅंगा।

तुम कल्पवृक्ष का फूल और
मैं धरती का अदना गायक
तुम जीवन के उपभोग योग्य
मैं नहीं स्वयं अपने लायक
तुम नहीं अधुरी गजल शुभे
तुम शाम गान सी पावन हो
हिम शिखरों पर सहसा कौंधी
बिजुरी सी तुम मनभावन हो
इसलिये व्यर्थ शब्दों वाला व्यापार नहीं दे पाउॅंगा
तुम मुझको करना माफ तुम्हें मैं प्यार नहीं दे पाउॅंगा।

तुम जिस शयया पर शयन करो
वह क्षीर सिन्धु सी पावन हो
जिस आंगन की हो मौलश्री
वह आंगन क्या वृन्दावन हो
जिन अधरों का चुम्बन पाओ
वे अधर नहीं गंगातट हों
जिसकी छाया बन साथ रहो
वह व्यक्ति नहीं वंशीवट हो
पर मैं वट जैसा सघन छॉंह विस्तार नहीं दे पाउॅंगा
तुम मुझको करना माफ तुम्हें मैं प्यार नहीं दे पाउॅंगा।

में तुमको चॉद सितारों का
सौंपू उपहार भला कैसे
मैं यायावर बंजारा साधू
दूं सुर श्रंगार भला कैसे
मैं जीवन के प्रश्नों से नाता तोड़ तुम्हारे साथ शुभे
बारूद बिछी धरती पर कर लूं
दो पल प्यार भला कैसे
इसलिये विवश हर आंसू को सत्कार नहीं दे पाउॅंगा
तुम मुझको करना माफ तुम्हें मैं प्यार नहीं दे पाउॅंगा।

:—डॉ0 कुमार विश्वास (Dr. Kumar Viswas)

Friday 22 March 2013

मिले हर जख्म को मुस्कान से सीना नहीं आया


मिले हर जख्म को मुस्कान से सीना नहीं आया
अमरता चाहते थे पर जहर पीना नहीं आया
तुम्हारी और मेरी दास्तां में फर्क इतना है
मुझे मरना नहीं आया तुम्हें जीना नहीं आया

वहुत विखरा बहुत टूटा थपेड़े सह नहीं पाया
हवाओं के इशारों पर मगर में बह नहीं पाया
अधूरा अनसुना ही रह गया पर प्यार का किस्सा
कभी तुम सुन नहीं पाई कभी में कह नहीं पाया

तुम्हारा ख्वाव जैसे गम को अपनाने से डरता है
हमारी आंख का आंसू खुशी पाने से डरता है
अजब है लत्फ ए गम भी जो मेरा दिल अभी कल तक
तेरे जाने से डरता था कि अब आने से डरता है

- डा0 कुमार विश्‍वास (Dr. Kumar Viswas)

ये तेरी वेरूखी की हम से आदत खाक छूटेगी


ये तेरी वेरूखी की हम से आदत खाक छूटेगी
कोई दरिया न यह समझे कि मेरी प्यास टूटेगी
तेरे वादे का तू जाने मेरा वो ही इरादा है
कि जिस दिन सांस टूटेगी उसी दिन आस छूटेगी

अभी चलता हूं रस्ते को में मंजिल मान लूं कैसे
मसीहा दिल को अपनी जिद का कातिल मान लूं कैसे
तुम्हारी याद के आदिम अंधेरे मुझ को घेरे हैं
तुम्हारे बिन जो वीते दिन उन्हें दिन मान लूं कैसे

गमों को आबरू अपनी खुशी को गम समझते हैं
जिन्हें कोई नहीं समझा उन्हें वस हम समझते हैं
कशिश जिन्दा है अपनी चाहतों में जानेजा क्योंकि
हमें तुम कम समझती हो तुम्हें हम कम समझते हैं।

-डा0 कुमार विश्‍वास (Dr. Kumar Viswas)

डा0 कुमार विश्‍वास गजल


रूह जिस्म का ठौर ठिकाना चलता रहता है
जीना मरना खोना पाना चलता रहता है

सुख दुख वाली चादर घटती वढती रहती है
मौला तेरा ताना वाना चलता रहता है

इश्क करो तो जीते जी मर जाना पड़ता है
मर कर भी लेकिन जुर्माना चलता रहता है

जिन नजरों ने काम दिलाया गजलें कहने का
आज तलक उनको नजराना चलता रहता है

-डा0 कुमार विश्‍वास (Dr. Kumar Viswas)

Saturday 16 March 2013

Rahat Indori ....


बुलाती है मगर जाने का नहीं
ये दुनिया है इधर जाने का नहीं
मेरे वेटे किसी से इश्क कर
मगर हद से गुजर जाने का नहीं
कुशादा जर्फ होना चाहिये
छलक जाने का भर जाने का नहीं
सितारे नोंच कर ले जाउंगा
में खाली हाथ घर ले जाने का नहीं
वो गर्दन नापता है
नाप ले मगर जालिम से डर जाने का नहीं



— साभार राहत इन्दौरी साहब

Rahat Indori Gajal Part 5



तेरी हरबात मौहब्ब्त में गंवारा करके
दिल के बाजार में बैठे खसारा करके

मुन्तजिर हूं कि सितारों की जरा आंख लगे
चॉद को छत पर बुला लूंगा इशारा करके

आसमानों की तरफ फेंक दिया है मेंने
चंद मिटटी के चिरागों को सितारा करके

में वो दरियां हूं कि हर वूंद भवंर है जिसकी
तुमने अच्छा ही किया मुझसे किनारा करके

— साभार राहत इन्दौरी साहब

Rahat Indori Gajal Part 4


इश्क में जीतके आने के लिये काफी हूं
में निहत्था ही जमाने के लिये काफी हू

मेरी हकीकत को मेरी खाफ समझने वाले
में तेरी नींद उड़ाने के लिये काफी हूं

मेरे बच्चों मुझे दिल खोल के तुम खर्च करो
में अकेला ही कमाने के लिये काफी हूं

एक अखवार हूं औकात ही क्या मेरी
मगर शहर में आग लगाने के लिये काफी हूं

— साभार राहत इन्दौरी साहब

Friday 15 March 2013

न वो मय न पैमाने रहे



अव न वो दिल न वो दर्द न वो दीवाने रहे
अव न वो साज न वो सुर न वो गाने रहे
साकी तू अब भी यहां किसके लिये बैठा है
अव न वो जाम न वो मय न पैमाने रहे

दुखते हुये जख्मों पे हवा कौन करे
इस हाल में जीने की दुआ कौन करे
बीमार हैं जब खुद ही हकीमानेवतन
फिर तेरे मरीजों की दवा कौन करे

नेताओं ने गांधी की कसम तक वेची
कविओं ने निराला की कलम तक वेची
मत पूछ कि इस दौर में क्या क्या न बिका
इंसानों ने आंखों की शर्म तक वेची

- पदमश्री श्री गोपाल दास नीरज 

Rahat Indori Gajal Part 3


सुनें कि नई हवाओं की सौहवत विगाड़ देती है
कबूतरों को खुली छत बिगाड़ देती है

जो जुर्म करते हैं इतने बुरे नहीं होते
सजा न देके अदालत बिगाड़ देती है

मिलाना चाहा है इंसा को जो भी इंसा से
तो सारे काम सियासत विगाड़ देती है

हमारे पीर तकीमीर ने कहा था कभी
मियां ये आशिकी इज्जत विगाड़ देती है

सियासत में जरूरी है रवादारी समझता है
वो रोजा तो नहीं रखता पर इफतारी समझता है।

— साभार राहत इन्दौरी साहब

Rahat Indori Gajal Part 2


कश्ती तेरा नसीब चमकदार कर दिया
इस पार के थपेड़ों ने उस पार कर दिया

अफवाह थी कि मेरी तबीयत खराब है
लोगों ने पूछ पूछ कर बीमार कर दिया

दो गज सही मगर ये मेरी मिल्कियत तो है
ऐ मौत तूने मुझ को जमींदार कर दिया

— साभार राहत इन्दौरी साहब ( Rahat Indori )

Rahat Indori Gajal 1


मेरे हुजरे में नहीं और कहीं पर रख दो
आसमां लाये हो ले आये जमीं पर रख दो

अब कहां ढूंढने जाओगे हमारे कातिल
आप तो कत्ल का इल्जाम हमीं पर रख दो

उसने जिस ताक पे कुछ टूटे दीये रक्खे हैं
चॉद तारों को भी ले जाकर वहीं पर रक्ख दो

— साभार राहत इन्दौरी जी (Rahat Indori)

Tuesday 12 March 2013

प्रिय तुम्हारी सुधि को मेंने (Priya Tumhari sudhi ko maine)


प्रिय तुम्हारी सुधि को मेंने यूं भी अक्सर झूम लिया
तुम पर गीत लिखा फिर उसका अक्षर अक्षर चूम लिया

में क्या जानूं मन्दिर मस्जिद गिरजा या गुरूद्वारा
जिन पर पहली बार लिखा था अल्हण रूप तुम्हारा
मेंने उन पावन राहों का पत्थर पत्थर चूम लिया
प्रिय तुम्हारी सुधि को मेंने यूं भी अक्सर झूम लिया........तुम पर गीत

हम तुम कितनी दूर धरा से नभ की जितनी दूरी
फिर भी हमने साथ मिलन की पल में कर ली पुरी
मेंने धरती को दुलराया तुमने अम्बर चूम लिया
प्रिय तुम्हारी सुधि को मेंने यूं भी अक्सर झूम लिया..........तुम पर गीत

प्रियतम सुधि की गंध तुम्हारी मेंने चूमी ऐसे
चरण अहिल्या ने रघुवर के चूम लिये थे जैसे
जैसे लकडी की मुरली ने मोहन का स्वर चूम लिया
प्रिय तुम्हारी सुधि को मेंने यूं भी अक्सर झूम लिया........तुम पर गीत

— श्री देवल आशीष श्रंगार रस कवि (Deval Ashish)





गंगाजल सा निर्मल मन है देह नहीं है दर्शन है (Gangajal Sa Nirmal Man hai )


रीत भले है अलग हमारी पर पूजन तो पूजन है
भाव सुमन है गीत भजन है स्वर क्या है अभिनन्दन है
ध्यान बसा वो रूप कि जिसकी छवि तीरथ सी पावन है
गंगाजल सा निर्मल मन है देह नहीं है दर्शन है

रूप कि जिसके आगे वुझकर धूप चॉंदनी होती
हंसदे तो हीरे शरमायें मुस्काये तो मोती
चाल चले तो चरण चूम लें नदिया देख रवानी
बहता पानी पानी पानी होकर मांगे पानी
कंचन काया को छू ले तो और महकता चंदन है
गंगाजल सा निर्मल मन है देह नहीं है दर्शन है
गंगाजल सा निर्मल मन है देह नहीं है दर्शन है...........रीत भले

अलंकार सब रीझे जिस पर उपमायें सब हारी
देख जिसे जयदेव मगन हों वेवस तकें बिहारी
बहके जिसकी एक झलक में अनगिन आंखें प्यासी
जिसके दर्शन पा जायें तो तप छोडें सन्यासी
जिसकी सुधियों में आर्कषण सपनों में सम्मोहन है
गंगाजल सा निर्मल मन है देह नहीं है दर्शन है...........रीत भले

अंग अंग शुभ अंकित जैसे मानस की चौपाई
चिंतन में विस्तार गगन सा गीता सी गहराई
सूरत सुखद नयन में निश्छल नेह करे अगवानी
अमृत पीके अधर उचारे वेद मन्त्र सी बानी
क्या मन्दिर में होगा जैसा अन्तर में आराधन है
गंगाजल सा निर्मल मन है देह नहीं है दर्शन है...........रीत भले

निराकार होकर भी अपने अ​नगिन रूप दिखाये
किन्तु उसे ये आंखों वाली दुनिया देख न पाये
देखे जो दिलवाला कोई तजकर कण्ठी माला
रचना में साकार मिलेगा दुनिया रचने वाला
क्या पत्थर में खोजें उसको जिसकी रचना जीवन है
गंगाजल सा निर्मल मन है देह नहीं है दर्शन है...........रीत भले

— श्रंगार रस कवि देवल आशीष (Deval Ashish)

Thursday 7 March 2013

तुझे नजर न लगे (Tujhe Najar Na lage)


मुददतों खुद की कुछ खबर न लगे,
कोई अच्छा भी इस कदर न लगे
बस तुझे उस नजर से देखा है,
जिस नजर से तुझे नजर न लगे

में जिसे दिल से प्यार करता हूं,
चाहता हूं उसे खबर न लगे
वो मेरा दोस्त भी है दुश्मन भी,
वददुआ दूं उसे पर न लगे

ये सोचना गलत है कि तुम पर नजर नहीं,
मशरूफ हम वहुत हैं मगर वेखबर नहीं
और अव तो खुद अपने खून ने भी साफ कह दिया
में आप का रहुंगा मगर उम्र भर नहीं

- श्री आलोक श्रीवास्‍तव (Alok Srivastav)

सासें भीग जाती हैं (Sansain Bheeg Jati hain)


तुम्हारे पास आता हूं तो सासें भीग जाती हैं,
मुहब्‍बत इतनी मिलती है कि आंखें भीग जाती हैं।

तबस्सुम इत्र जैसा है हंसी बरसात जैसा है,
वो जब भी बात करता है तो वातें भीग जाती हैं।

तुम्हारी याद से दिल में उजाला होने लगता है,
तुम्हें जब गुनगुनाता हूं तो रातें भीग जाती हैं।

जमी की गोद भरती है तो कुदरत भी चहकती है,
नये पत्ते की आहट से ही शाखें भीग जाती हैं।

तेरे एहसास की खुशबू हमेशा ताजा रहती है,
तेरी रहमत की वारिश से मुरादें भीग जाती हैं।

-श्री आलोक श्रीवास्‍तव (Alok Srivastav)

जो हममें तुममें हुई मुहब्बत (Jo Hammain Tummain hui Mohabbat)


जो हममें तुममें हुई मुहब्बत
तो देखो कैसा हुया उजाला
वो खुशबूओं ने चमन संभाला
वो मस्जिदों में खिला तब्स्सुम
वो मुस्कराया है फिर शिवालाय
जो हममें तुममें हुई मुहब्बत................

जो हममें तुममें हुई मुहब्बत
तो लव गुलाबों के फिर से महके
नगर शबाबों के फिर से महके
किसी ने रक्खा है फूल फिर से
वरख्त किताबों के फिर से महके
जो हममें तुममें हुई मुहब्बत.....................

मुहब्बतों की दुकां नहीं है
वतन नहीं है मकां नहीं है
कदम का मीलों निशां नहीं है
मगर बता ये कहां नहीं हैं

कहीं पर गीता कुरान है ये
कहीं पर पूजा अजान है ये
सदाकतों की जुबान है ये
खुला खुला आसमान है ये

तरक्कियों का सामाज जागा
कि बालियों में अनाज जागा
कबुल होने लगी हैं मन्नत
धरा को तकने लगी है जन्नत
जो हममें तुममें हुई मुहब्बत................

-आलोक श्रीवास्तव (Alok Srivastav)

Wednesday 6 March 2013

नेता (Neta)....आज की राजनीती


सच का सफर अधरों पे दम तोड़ता है झूठ की नजर डोलती है आसमान में
यार इस सीजन में कितना उड़ाया माल एक नेता पूछता है दूसरे से कान में
कुछ ने किया है खेल, खेल में ही रेल पेल सैटिंग बिठाई कईयों ने फोनफान में
कुछ थो आदर्श हुये सागर किनारे जाके और बाकी कूद गये कोयला खदान में

कुछ अधरों की प्यास इतनी वढी कि वस सारी मधुशाला को प्याला कर लिया है
और कुछ भूख इतनी हुयी है विकराल पूरे संविधान को निवाला कर लिया है
माल देश का उड़ा के खुश है दलाल और अपनी ही खाल को दुशाला कर लिया है
मुंह चूंकि देश को दिखाने लायक नहीं था इसलिये कोयले से काला कर लिया है।

भोर की सुनहरी डालियों पे बैठे पंक्षियों को भूख के डरावने ख्यालों से बचाईये
खुद को तलाश करते जवान लम्हों की शाम को लरजते प्यालों से बचाईये
कि कैसे कहॉ कौनसी मुसीबत उठाये सर आम आदमी को इन ख्यालों से बचाईये
और सारी मुश्किलों के निकलने लगेंगे हल पहले इस देश को दलालों से बचाईये

लोकतन्त्र की विडम्बना है और कुछ नहीं जाने किस किस को सलाम सोंप दिया है
आज तक ठीक से समझ में यह आया नहीं जाने किस बात का इनाम सोंप दिया है
जो हैं तानाशाही वाली सोच के गुलाम उन्हें आज सारे हिन्द का निजाम सोंप दिया है
जिन्हें बैठना था पान की दुकान पर उन्हें देश का चलाने वाले काम सोंप दिया है

नित नये बादे नये दाबे में इरादे नये पल में बदलते वयान छोड दीजिये
वस में नहीं जो काम उसका वखान फिर उस पे लड़ानी ये जुबान छोड दीजिये
कि आपने परिस्थितियॉ जो पैदा कर दी हैं मॉग करता है संविधान छोड दीजिये
तुमसे न होगा कुछ मानो मनमौन जी हो सके तो देश की कमान छोड दीजिये

दशरथ को (Dashrath ko)


A True condition of Metro Cities...............

राम इस दौर का वुढापे का सहारा बनें, रहती है बस यही आश दशरथ को
और तृष्णा की मंथरा दरार डाल दे न कहीं, सालता है यही एकसास दशरथ को
लाडलों ने जाने कैसा फरमान रख दिया, आज फिर देखा है उदास दशरथ को
राम को मिला था बनवास युग बीत गये, रोज मिलता है बनवास दशरथ को

- कवि चरन (Kavi Charan)

माँ (Maa)


हौले हौले ख्वाहिशों की उम्र वढने लगी तो, दिल में जवान कितने ही ख्वाव हो गये
और वक्त की शिकायतों पर रब की इनायतें थी, हमने जो देखे सपने गुलाब हो गये
कि दुनिया ने रख दिये पग पग पे सवाल, फिर भी इरादे सभी लाजबाब हो गये
जिन्दगी में और तो वसीला कुछ भी नहीं था, मॉ ने दी दुआयें हम कामयाब हो गये !

खूबसूरती किसी इमारत के गमलों की, जैस और भी निखरती है कांट छांट से
हम से यह बार बार बोलते हैं संस्कार, प्यार फैलता है अपनों में वरवांट से
हौले हौले घूंट घूंट दिल में उतरती है, जल की सुगंध जैसे मिटटी वाले मॉट से
हमने सही है इसलिये हम जानते हैं, जिन्दगी संवरती वुजुर्गों की डांट से !

देश के दुलारे जिस रास्ते से गुजरे हों ऐसी पगडण्डी ऐसा ठौर छू के चलिये
फल फूलते हों जहां प्रेम और संस्कार सपनों का ऐसा कोई गॉव छू के चलिये
जिन्दगी जिन्होंने लिख दी है पथिकों के नाम राह के दरख्तों की छांव छू के चलिये
और पुण्य चारधाम का बनेगा हर एक काम घर से चलो तो मॉ के पांव छू के चलिये ! 


- कवि चरन (Kavi Charan)


Monday 4 March 2013

बस मुझ पर एहसान तुम्‍हारा हो जाये (Bas Mugh par aihsaan tumhara ho jaye)

कि तुम सुमनों की कोमलता, कि तुम हिरनी की चंचलता
कि तुम कलियों की तरूणाई, कि तुम तुलसी की चौपाई -- २

कि प्रिय मेरा तन मन ध्‍यान तुम्‍हारा हो जाये, मेरा तन मन ध्‍यान तुम्‍हारा हो जाये
बस मुझ पर एहसान तुम्‍हारा हो जाये --- कि तुम सुमनों की कोमलता

नयन तुम्‍हारे नयन नहीं है नेह निमन्‍ञण है,
अधर नहीं सौन्‍दर्य सुधा का सहज समपर्ण है
जाने किस के कुशल करों ने तुम्‍हें तराशा है
रूप तुम्‍हारा कोहिनूर है देह वताशा है

तभी तो वो चन्‍द्र किरन अलवेली भटको मत निपट अकेली
जग की अदभुत है लीला हर पंथ वडा पथरीला
फिर भी जीवन पथ आसाना तुम्‍हारा हो जाये
बस मुझ पर एहसान तुम्‍हारा हो जाये --- कि तुम सुमनों की कोमलता

गौर छंटा के श्‍याम घटा के द़श्‍य मनोहर हैं,
चपल चंचला तुम पर मेरे प्राण न्‍यौछावर हैं
तुम्‍हें भला क्‍या दूं जब सब कुछ स्‍वंय तुम्‍हारा हो
तुम्‍हीं प्‍यास हो तुम्‍हीं त़़प्‍ति हो तुम जलधारा हो
सुनो तो फिर वेमन की इच्‍छायें, चिर ग्‍वारीय अभिलाषायें
सब सुख दुख दर्द पुराने रेशम से सपन सुहाने
मेरा ये सारा संसार तुम्‍हारा हो जाये
बस मुझ पर एहसान तुम्‍हारा हो जाये --- कि तुम सुमनों की कोमलता

--श्री श्रंगार रस कवि भाई देवल आशीष (Deval Ashish)


में भाव सूची उन भावों की (Main Bhav Soochi un Bhavo ki)

में भाव सूची उन भावों की, जो बिके सदा ही बिन तोले
तन्‍हाई हूं हर उस खत की, जो पढा गया है बिन खोले
हर आंसू को हर पत्‍थर तक पहुंचाने की लाचार हूक,
में सहज अर्थ उन शब्‍दों का जो सुने गये हैं बिन बोले
जो कभी नहीं बरसा खुलकर हर उस बादल का पानी हूं
लव कुश की पीर बिना गाई सीता की रामकहानी हूं

जिनके सपनों के ताजमहल, बनने से पहले टूट गये
जिन हाथों में दो हाथ कभी आने से पहले छूट गये
धरती पर जिनके खोने और पाने की अजब कहानी है
किस्‍मत की देवी मान गयी पर प्रणय देवता रूठ गये
में मैली चादर वाले उस कबिरा की अम़तवाणी हूं
लव कुश की पीर बिना गाई सीता की रामकहानी हूं

कुछ कहते हैं में सीखा हूं अपने जख्‍मों को खुद सींकर
कुछ जान गये में हंसता हूं भीतर भीतर आंसू पीकर
कुछ कहते हैं में हूं बिरोध से उपजी एक खुददार विजय
कुछ कहते में रचता हूं खुद में मरकर खुद में जीकर
लेकिन हर चतुराई की सोची समझी नादानी हूं
लव कुश की पीर बिना गाई सीता की रामकहानी हूं

में भाव सूची उन भावों की, जो बिके सदा ही बिन तोले -----------

- श्री कुमार विश्‍वास (Dr. Kuamr Viswas)


Sunday 3 March 2013

जीवन नहीं मरा करता है (Jeevan nahi mara karta hai)


छिप छिप अश्रु बहाने बालो,
मोती व्यर्थ लुटाने वालो
कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है।

सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुया आंख का पानी
और टूटना है उसको ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने बालो, डूबे बिना नहाने बालो
कुछ पानी के बह जाने से सावन नहीं मरा करता है।

माला विखर गई तो क्या है,
खुद ही हल हो गयी समस्या
आंसू गर नीलाम हुये तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालो, फटी कमीज सिलाने वाले
कुछ दीपक के वुझ जाने से आंगन नहीं मरा करता है।

खोता कुछ भी नहीं यहॉ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चॉदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वाले, चाल बदलकर जाने वालो
चंद खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है।

लाखों बार गगरिया फूटीं
शिकन न आयी पर पन्घट पर
लाखों वार किश्तियॉ डूबीं
चहल पहल वो ही है घट पर
तम की उमर वढाने वालो लौ की उमर घटाने वालो
लाख करे पतझड़ कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है।

लूट लिया माली ने उपवन
लूटी न लेकिन गन्ध फूल की
तूफानों तक ने छेड़ा पर
खिड़की बन्द न हुई धूल की
नफरत गले लगाने वालों सब पर धूल उड़ाने वालो
कुछ मुखड़ों की नाराजी से दर्पण नहीं मरा करता है।

—श्री गोपाल दास नीरज  (Shri Gopal Das Neeraj)

Friday 1 March 2013

मॉग की सिन्दूर रेखा (Mang Ki Sindoor Rekha)


मॉग की सिन्दूर रेखा तुमसे ये पूछेगी कल,
यूं मुझे सर पर सजाने का तुम्हें अधिकार क्या है।
तुम कहोगी वो समर्पण बचपना था तो कहेगी,
गर वो सब कुछ बचपना था तो कहो फिर प्यार क्या है। — 2

कल कोई अल्हड़ अयाना बाबरा झोंका पवन का,
जब तुम्हारे इंगितों पर गन्ध भर देगा चमन में
या कोई चंदा धरा का रूप का मारा वेचारा,
कल्पना के तार से नक्षत्र जड देगा गगन पर
तब यही विछुये, महावर, चुडियां, गजरे कहेंगे,
इस अमर सौभाग्य के श्रंगार का अधिकार क्या है।
मॉग की सिन्दूर रेखा तुमसे ये पूछेगी कल,
यूं मुझे सर पर सजाने का तुम्हें अधिकार क्या है।
तुम कहोगी वो समर्पण बचपना था तो कहेगी,
गर वो सब कुछ बचपना था तो कहो फिर प्यार क्या है।

कल कोई दिनकर विजय का सेहरा सर पर सजाये,
जब तुम्हारी सप्तवर्णी छांव में सोने चलेगा
या कोई हारा थका व्याकुल सिपाही तुम्हारे,
वक्ष पर धर सीस हिचकियां रोने लगेगा
तब किसी तन पर कसीं दो बांह जुड कर पूछ लेंगी,
इस प्रणय जीवन समर में जीत क्या है हार क्या है।
मॉग की सिन्दूर रेखा तुमसे ये पूछेगी कल,
यूं मुझे सर पर सजाने का तुम्हें अधिकार क्या है।
तुम कहोगी वो समर्पण बचपना था तो कहेगी,
गर वो सब कुछ बचपना था तो कहो फिर प्यार क्या है।

— डा0 कुमार विश्वास (Dr. Kumar Vishwas)