रीत भले है अलग हमारी पर पूजन तो पूजन है
भाव सुमन है गीत भजन है स्वर क्या है अभिनन्दन है
ध्यान बसा वो रूप कि जिसकी छवि तीरथ सी पावन है
गंगाजल सा निर्मल मन है देह नहीं है दर्शन है
रूप कि जिसके आगे वुझकर धूप चॉंदनी होती
हंसदे तो हीरे शरमायें मुस्काये तो मोती
चाल चले तो चरण चूम लें नदिया देख रवानी
बहता पानी पानी पानी होकर मांगे पानी
कंचन काया को छू ले तो और महकता चंदन है
गंगाजल सा निर्मल मन है देह नहीं है दर्शन है
गंगाजल सा निर्मल मन है देह नहीं है दर्शन है...........रीत भले
अलंकार सब रीझे जिस पर उपमायें सब हारी
देख जिसे जयदेव मगन हों वेवस तकें बिहारी
बहके जिसकी एक झलक में अनगिन आंखें प्यासी
जिसके दर्शन पा जायें तो तप छोडें सन्यासी
जिसकी सुधियों में आर्कषण सपनों में सम्मोहन है
गंगाजल सा निर्मल मन है देह नहीं है दर्शन है...........रीत भले
अंग अंग शुभ अंकित जैसे मानस की चौपाई
चिंतन में विस्तार गगन सा गीता सी गहराई
सूरत सुखद नयन में निश्छल नेह करे अगवानी
अमृत पीके अधर उचारे वेद मन्त्र सी बानी
क्या मन्दिर में होगा जैसा अन्तर में आराधन है
गंगाजल सा निर्मल मन है देह नहीं है दर्शन है...........रीत भले
निराकार होकर भी अपने अनगिन रूप दिखाये
किन्तु उसे ये आंखों वाली दुनिया देख न पाये
देखे जो दिलवाला कोई तजकर कण्ठी माला
रचना में साकार मिलेगा दुनिया रचने वाला
क्या पत्थर में खोजें उसको जिसकी रचना जीवन है
गंगाजल सा निर्मल मन है देह नहीं है दर्शन है...........रीत भले
— श्रंगार रस कवि देवल आशीष (Deval Ashish)
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