पुकारे आंख में चढ कर दुखों को खूं समझता है,
अंधेरा किस को कहते हैं यह वस जुगनूं समझता है
हमें तो चॉद तारों में भी तेरा रूप दिखता है,
मुहम्मत में नुमाइश को अदायें तू समझता है।
मेरा प्रतिमान आंसू में भिगो कर गढ लिया होता
अंकिचन पांव तब आगे तुम्हारा वढ लिया होता
मेरी आंखों में भी अंकित समर्पण की रिचायें थी
उन्हें कुछ अर्थ मिल जाता जो तुमने पढ लिया होता
जहॉ हर दिन सिसकना है जहॉ हर रात गाना है
हमारी जिन्दगी भी एक तफायफ का घराना है
बहुत मजबूर होकर गीत रोटी के लिखे मेंने
तुम्हारी याद का क्या है उसे तो रोज आना है।
कहीं पर जग लिये तुम बिन,कहीं पर सो लिये तुम बिन,
भरी महफिल में भी अक्सर अकेले हो लिये तुम बिन
ये पिछले चन्द बर्षो की कमाई साथ है मेरे,
कभी तो हंस लिये तुम बिन कभी फिर रो लिये तुम बिन
-डा0 कुमार विश्वास (Dr. Kumar Vishwas)
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