अल्हड़ अबोध आयु पाकर दिवाकर सा, रूप काम तन रत नारी लगने लगी
वॉकुरी की धार सम तीखे नयनों की कोर, आंज कर काजर कटारी लगने लगी
देख कर कंचन समान कमनीय काया, काम को भी कामना कुमारी लगने लगी
यौवन का वोझ इतना वढ़ा कि देह पर, ओढ़नी भी रेशम की भारी लगने लगी
मुखड़ा है जैसे पूर्णिमा के चन्द्रमा की छवि, देहदृष्टि जैसे पारिजात है कसम से
चंचल हंसी में मीठी तान की सी कोयल की, बानी में सुरों की बरसात है कसम से
घोर कालिमा से काले काले—काले कुन्तल हैं, काले केश हैं कि काली रात है कसम से
गोरे रंग से भी गोरी गोरी—गोरी इतनी की, तुलना में गोरा रंग मात है कसम से
झूमर बजी झनननन् कंगन बजे खननन् किनन् किनन् मोतियों के हार बजने लगे
कोमल चरण जो चले तो गन्ध चूम चूम झूमते कनेर कचनार बजने लगे
प्रेती पातकों की चेतना में घन्टियों के स्वर, रूपसी का देश के श्रंगार बजने लगे
नूपुर उधर बार—बार बजने लगे, तो इधर दिलों के तार—तार बजने लगे — 2
— श्रंगार रस कवि श्री देवल आशीष
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