Tuesday, 30 April 2013

नर हो न निराश करो मन को (Nar ho na Nirash Karo man Ko)


नर हो न निराश करो मन को

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को।
संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्व यहॉं
फिर जा सकता वह सत्व कहॉं
तुम स्वतत्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाये अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को।

— श्री मैथलीशरण गुप्त
(Mathli sharan Gupt)

Monday, 22 April 2013

हम पंक्षी उन्मुक्त गगन के


हम पंक्षी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाऐंगे
कनक तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऐंगे।
हम बहता जल पीने बाले
मर जाऐंगे भूखे प्यासे
कहीं भली है कटक निबोरी
कनक कटोरी की मैदा से।
स्वर्ण—श्रंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले।
ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने
लाल किरण सी चोंच खोल
चुगते तारक—अनार के दाने।
होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा होड़ी
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सॉसों की डोरी।
नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न—भिन्न कर डालो
लेकिन पंख दिये हैं तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो।

—शिवमंगल सिंह'सुमन'
(Shiv Mangal Singh 'Suman')

Saturday, 20 April 2013

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना (Jalao diye par rahe dhyan itna)


जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अॅधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मत्र्य मिटटी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाये, निशा आ ना पाये
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अॅधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिये भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूं ही,
भले ही दिवाली यहॉं रोज आये,
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अॅधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अॅंधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अॅंधेरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आये
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अॅधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

— पदमश्री श्री गोपाल दास नीरज
(Padamshri Shri Gopal Das Neeraj)

Friday, 19 April 2013

कुछ छोटे सपनों के बदले (Kuch Chote sapno ke badle)


कुछ छोटे सपनों के बदले,
बड़ी नींद का सौदा करने,
निकल पड़े हैं पांव अभागे, जाने कौन डगर ठहरेंगे

वही प्यास के अनगढ़ मोती,
वही धूप की सुर्ख कहानी,
वही आंख में घुटकर मरती,
आंसू की खुददार जवानी,
हर मोहरे की मूक विवशता, चौसर के खाने क्या जाने
हार जीत तय करती है, वे आज कौन से घर ठहरेंगे
निकल पड़े हैं पांव अभागे, जाने कौन डगर ठहरेंगे

कुछ पलकों में बंद चांदनी,
कुछ होंठों में कैद तराने,
मंजिल के गुमनाम भरोसे,
सपनों के लाचार बहाने,
जिनकी जिद के आगे सूरज, मोरपंख से छाया मांगे
उन के भी दुर्दम्य इरादे, वीणा के स्वर पर ठहरेंगे
निकल पड़े हैं पांव अभागे, जाने कौन डगर ठहरेंगे

—डॉ. कुमार विश्वास (Kumar Viswas)

Sunday, 14 April 2013

सोच समझ कर करना पंथी यहॉं किसी से प्यार


सोच समझ कर करना पंथी यहॉं किसी से प्यार
चांदी का यह देश,यहॉं के छलिया राजकुमार
किसे यहॉ अवकाश सुने जो तेरी करूण कराहें
तुझ पर करें बयार, यहॉं सूनी हैं किसकी बाहें
बादल बन कर खोज रहा तू किसको इस मरूथल में
कौन यहॉ, व्याकुल हों जिसकी तेरे लिए निगाहें
फूलों की यह हाट लगी है, मुस्कानों का मेला
कौन खरीदेगा तेरे सूखे आंसू दो चार
सोच समझ कर करना पंथी यहॉ किसी से प्यार ।

— पदमश्री गोपाल दास नीरज

Thursday, 11 April 2013

जीवन कटना था, कट गया (Jeevan Katna tha Kat Gaya)


जीवन कटना था, कट गया
अच्छा कटा, बुरा कटा
यह तुम जानो
मैं तो यह समझता हूं
कपड़ा पुराना एक फटना था, फट गया
जीवन कटना था कट गया।

रीता है क्या कुछ
बीता है क्या कुछ
यह हिसाब तुम करो
मैं तो यह कहता हूं
परदा भरम का जो हटना था, हट गया
जीवन कटना था कट गया।

क्या होगा चुकने के बाद
बूंद—बूंद रिसने के बाद
यह चिंता तुम करो
मैं तो यह कहता हूं
करजा जो मिटटी का पटना था, पट गया
जीवन कटना था कट गया।

बंधा हूं कि खुला हूं
मैला हूं कि धुला हूं
यह बिचार तुम करो
मैं तो यह सुनता हूं
घट—घट का अंतर जो घटना था, घट गया
जीवन कटना था कट गया।

— पदमश्री श्री गोपाल दास नीरज
( Padam Shri Gopal Das Neeraj )

Monday, 8 April 2013

सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां


सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां
कि जिन में उनकी ही रोशनी हो कहीं से ला दो मुझे वो अंखिया

दिलों की बातें दिलों के अन्दर जरा सी जिद से दबी हुई हैं
वो सुनना चाहें जुबां से सब कुछ मैं करना चाहूं नजर से वतियां

ये इश्क क्या है, ये इश्क क्या है, ये इश्क क्या है, ये इश्क क्या है 
सुलगती सासें, तरसती आंखें, मचलतीं रूहें धड़कती छतियॉं

उन्हीं की आंखें, उन्हीं का जादू, उन्हीं की हस्ती, उन्हीं की खुशबू 
किसी भी धुन में रमाउं जियरा किसी दरश में पिरोलू अखियां

में कैसे मानूं बरसते नैनो कि तुमने देखा है पी को आते 
न काग बोले, न मोर नाचे, न कूंकी कोयल, न चटकी कलियां

सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां...............

—आलोक श्रीवास्तव (Alok Shrivastav)

Sunday, 7 April 2013

चॉंद और कवि


चॉंद और कवि (Chand Aur Kavi)

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चॉंद
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है !
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फॅंसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हॅू!
मैं चुका हूं देख मनु को जन्मते—मरते;
और लाखों बार तुझ—से पागलों को भी
चॉंदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते। 

आदमी का स्वप्न ? है बह बुलबुला जल का,
आज उठता और कल फिर फूट जाता ;
किन्‍तु, फिर भी धन्‍य ; ठहरा आदमी ही तो ?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता हैा 

मैं न बोला, किन्‍तु, मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से, चॉद मुझको जानता है तू ?
स्‍वप्‍न मेरे बुलबुले हैं हैं यही पानी ?
आग को भी क्‍या नहीं पहचानता है तू ?

मैं न वह जो स्‍वप्‍न पर केवल सही करते
आग में उसको गला लोहा बनाती है ;
और उस पर नींव रखती हूं नये घर की 
इस तरह, दीवार फौलादी उठाती हूं 

मनु नहीं, मनु पुञ है यह सामने, जिसकी
कल्‍पना की जीभ में भी धार होती है ,
बात ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्‍वप्‍न के भी हाथ में तलवार होती हैा

स्‍वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे,
''रोज ही आकाश चढते जा रहे हैं वे;
रोकिये, जैसे बने, इन स्‍वप्‍नबालों को,
स्‍वर्ग को ही और वढते आ रहे हैं वे'' |

-रामधारी सिंह 'दिनकर' (सामधेनी से) 
Ramdhari Singh Dinkar 

Thursday, 4 April 2013

अम्मा (Amma)


अम्मा (मॉं) / Amma (Maa)

चिन्तन, दर्शन, जीवन, सर्जन, रूह, नजर पर छायी अम्मा
सारे घर का शोर—शराबा, सूनापन, तन्हाई अम्मा

सारे रिश्ते जेठ—दुपहरी, गर्म—हवा, आतिश—अंगारे
झरना दरिया झील सम्न्दर भीनी सी पुरवाई अम्मा

घर में झीने रिश्ते मेंने लाखों बार उधरते देखे
चुपके चुपके कर देती है जाने कब तुरपाई अम्मा

उसने खुद को खोकर मुझमें एक नया आकार लिया है
धरती, अम्बर, आग, हवा, जल जैसी ही सच्चाई अम्मा

बाबूजी गुजरे आपस में सब चीजें तक्सीन हुई जब
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से आई अम्मा


—आलोक श्रीवास्तव (Alok Shrivastav)




Wednesday, 3 April 2013

मन तुम्‍हारा हो गया, तो हो गया (Man Tumhara ho Gaya)


मन तुम्हारा !
हो गया
तो हो गया....
एक तुम थे
जो सदा से अर्चना के गीत थे,
एक हम थे
जो सदा से धार के विपरीत थे,
ग्राम्य—स्वर
कैसे कठिन आलाप नियमित साध पाता,
द्वार पर संकल्प के
लखकर पराजय कंपकंपाता,
क्षीण सा स्वर
खो गया तो,खो गया
मन तुम्हारा!
हो गया
तो हो गया.......

लाख नाचे
मोर सा मन लाख तन का सीप तरसे,
कौन जाने
किस घड़ी तपती धरा पर मेघ बरसे,
अनसुने चाहे रहे
तन के सजग शहरी बुलावे,
प्राण में उतरे मगर
जब सृष्टि के आदिम छलावे,
बीज बादल
बो गया तो, बो गया,
मन तुम्हारा!
हो गया
तो हो गया........

—डा0 कुमार विश्वास(Dr. Kumar Viswas)